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बिहार चुनाव में इस बार स्वर्ण उम्मीदवारों का दबदबा, राजद ने भी छोड़ा मुस्लिम-यादव कांसेप्ट

October 16, 2020

आपको बता दें कि बिहार में सभी पार्टियों के उम्मीदवारों ने अपने अपने पर्चे भर दिए हैं और इस बीच इस बार की राजनीति में ऐसी अनुभूति होती है जैसे मानो तीन दशक बाद बिहार की राजनीति में स्वर्ण राजनीति लौटती दिख रही है. हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि इस बार के बिहार चुनाव में टिकट बंटवारे में करीब करीब सभी दलों ने सवर्णों को तवज्जो दी है. जैसा कि हम पहले देखते रहे हैं कि राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड हमेशा से दलित और पिछड़ों की राजनीति करती आई है, किंतु इस बार सवर्णों का इन पार्टियों ने भी खासा ख्याल रखा है. वहीं अगर हम भारतीय जनता पार्टी की बात करें तो अपने काफी उम्मीदवारों में बीजेपी ने भी सवर्णों को ही तवज्जो दी है.


सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात तो यह है की दलित और पिछड़ों की राजनीति करने वाले रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा भी इस बार की बिहार राजनीति में सवर्णों को टिकट देने में कोई कमी नहीं की है. आपको बता दें कि जेडीयू में सोशल इंजीनियरिंग के तहत अपने जनाधार वाली जातियों के अलावा महिलाओं के साथ-साथ सवर्णों को भी उम्मीदवार बनाया है.

बीजेपी ने 60% से ज्यादा स्वर्ण उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं :

अगर हम इस बार के बिहार चुनाव में टिकट वितरण की बात करें तो भाजपा ने अपने उतारे गए प्रत्याशियों में से 60 फ़ीसदी स्वर्ण समाज से अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं. वहीं अगर कांग्रेस की बात की जाए तो कांग्रेस का भी आंकड़ा इसी के आसपास भटकता नजर आता है. लेकिन सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि जनता दल यूनाइटेड ने इस बार पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले सवर्णों को ज्यादा मौका दिया है. वहीं राजद ने भी दलित और पिछड़ों की राजनीति छोड़ते हुए अपनी रणनीति में बदलाव किया है और इस बार 10 फ़ीसदी से ज्यादा स्वर्ण को टिकट दिया है. आपको बता दें कि राष्ट्रीय जनता दल ने स्वर्ण वोटरों को लुभाने के लिए अपने ही पार्टी के कद्दावर नेताओं के रिश्तेदारों को मैदान में उतारा है.

वहीं अगर स्वर्गीय राम विलास पासवान की पार्टी लोजपा की बात की जाए जो कि हमेशा से दलित राजनीति करती रही है उसने 35 फ़ीसदी से ज्यादा स्वर्ण को टिकट दिया है.

हिंदुत्व के एजेंडे के कारण सभी पार्टियां स्वर्ण वोटरों को साधने में लगी है :

अगर आपको मालूम हो तो 2013 लोकसभा चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी ने हिंदुत्व के एजेंडे को वाह आगे बढ़ाते हुए हर विधानसभा चुनाव में अपनी रणनीति तय की और इस रणनीति में भाजपा को अच्छे नतीजे भी मिले. इसी एजेंडे को देखते हुए कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल ने भी हिंदुत्व के एजेंडे पर चुनाव लड़ने के लिए मजबूर कर दिया है. शायद यही वजह है कि जो राजद पहले के बिहार विधानसभा चुनाव में माई समीकरण वाले कांसेप्ट पर चुनाव लड़ती थी, इसबार वो समीकरण  विधानसभा चुनाव में नहीं दिख रहा. आपको बता दें कि राजद पहले के विधानसभा चुनाव में माई कॉन्सेप्ट के आधार पर टिकट वितरण करती थी, माई कांसेप्ट यानी मुस्लिम यादव समीकरण के आधार पर प्रत्याशियों को टिकट दिए जाते थे और इन्हीं वोटरों को हमेशा से राजद लुभाने की कोशिश करती थी.

सबसे बड़ी बात यह रही कि इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने पहले चरण में मात्र एक मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारा है और चौंकाने वाली बात यह है कि इसबार मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या पिछली बार की के विधानसभा चुनाव से काफी कम है.

क्या कहता है इतिहास का समीकरण बिहार की राजनीति में स्वर्ण वोटरों को लेकर :

अगर इतिहास के पन्नों में झांक कर देखे तो 1989 - 1990 के बाद बिहार में स्वर्ण राजनीति का घोर विरोध हुआ. आपको बता दें कि 1990 के दशक में डॉ जगन्नाथ मिश्र चुनाव हारे और लालू प्रसाद यादव की सत्ता में इंट्री हुई. जिसके बाद बिहार की राजनीति ने ऐसा करवट लिया की जनता दल यूनाइटेड ने खुले मंचों से सवर्णों को कोसना शुरू कर दिया कि वह हमेशा से ओबीसी और दलितों का शोषण करते रहे है. उस वक्त के विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव ने माई कॉन्सेप्ट को मजबूती दी और साथ ही साथ ओबीसी दलित और एससी एसटी वोटरों को जातिवाद की राजनीति करके खूब लुभाया. लालू प्रसाद यादव ने उस दौर में बिहार की राजनीति में जातिवाद का ऐसा जहर घोला की हर तरफ जातिवाद कि लड़ाई शुरू हो गई और बिहार में गुंडाराज का ऐसा माहौल बना की जातियों के नाम पर हर तरफ खून खराबे, किडनैपिंग और फिरौती वसूली जैसे कार्य चरम पर पहुंच गए.

1992 में ब्राह्मणों ने कांग्रेस का साथ छोड़ा और भाजपाई हो गए.इसी समय दलित राजनीति को रामविलास पासवान ने हवा दी, ओबीसी राजनीति पर लालू और नीतीश कुमार बंटे. 1994 में समता पार्टी बनी और नीतीश की समता पार्टी ने भी सवर्ण विरोधी राजनीति को हवा दी.

स्वर्ण वोटरों का एक बड़ा तबका बीजेपी और जेडीयू गठबंधन का समर्थक है :

1995 आते-आते भारतीय जनता पार्टी ने स्वर्ण राजनीति को मजबूती देने की कोशिश की जिसमें काफी तेजी भी देखने को मिली जब राम मंदिर विवाद शुरू हुआ. उस वक्त बिहार की राजनीति में राजपूत और भूमिहार नेता खुलकर सामने आने लगे, फिर भी बिहार से जातिवाद का जहर खत्म नहीं हुआ. 2003 में जनता दल यूनाइटेड के गठन के साथ नीतीश कुमार ने अपने पुराने रुख को बदला और बीजेपी के साथ मिलकर स्वर्ण वोटरों पर निशाना साधना शुरू किया, जिसमें 2005 के बाद जेडीयू और बीजेपी के गठबंधन ने स्वर्ण वोटरों को लगभग अपने पाले में बना लिया. आज फिर से एक बार 2020 विधानसभा चुनाव में सभी पार्टियों को स्वर्ण मतदाताओं की चिंता सताने लगी है कि आखिर वह किस के पाले में अपना वोट देंगे.

अगर देखा जाए तो बीते कुछ महीनों में सुशांत सिंह राजपूत हत्या की हत्या ने भारत में खूब सुर्खियां बटोरी और इसकी एक बड़ी झांकी बिहार विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिल रही है. माना तो ऐसा भी जा रहा है कि सुशांत सिंह राजपूत के कारण इस बार स्वर्ण वोटरों को राजनीतिक पार्टियां लुभाने की कोशिश कर रही हैं.


आखिर क्यूं चिराग पासवान जदयू के विरुद्ध चुनाव लड़ रहे हैं, कहीं प्रशांत किशोर तो कारण नहीं

October 12, 2020

बिहार की राजनीति इसको समझना और इसको भेदना उतना ही मुश्किल है जितना महाभारत में अभिमन्यु द्वारा चक्रव्यू को तोड़ना. अभी के दौड़ में जहां सभी पार्टियां चुनावी तैयारियों में जुंटी हुई है, वहीं यह अटकलें तेज हो गई हैं कि, प्रशांत किशोर कहां है ?.. और इस चुनाव में इनकी क्या भूमिका रहेगी ?.. आपको बता दें कि अटकलों के हिसाब से चिराग पासवान प्रशांत किशोर के कहने पर ही जनता दल यूनाइटेड के विरुद्ध चुनाव लड़ने का फैसला लिया है. जहां एक तरफ इस फैसले से चिराग पासवान अपने जदयू से अपमानजनक निष्कासन का बदला ले सकेगी तो वहीं भविष्य की रणनीति से बीजेपी को फायदा भी पहुंचाएगी.

Image Credit : Google
आप सबको याद हो तो 2013 में भारतीय जनता पार्टी को प्रचंड जीत दिलवाने में प्रशांत किशोर का एक बड़ा योगदान रहा था, वहीं अगर बिहार के 2015 के विधानसभा चुनाव की बात की जाए तो उस चुनाव में भी प्रशांत किशोर ने नीतीश कुमार और आरजेडी के महागठबंधन को शानदार जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी. किंतु 2020 के विधानसभा चुनाव में प्रशांत किशोर की मौजूदगी उस कदर दर्ज नहीं हो पा रही है जैसे पहले के चुनावों में होती रही है. माना जा रहा है कि प्रशांत किशोर 2020 बिहार विधानसभा  के चुनाव में पर्दे के पीछे से गेम चेंजर हो सकते हैं. खबर तो यह भी आ रही है कि पिछले 2 वर्षों से चिराग पासवान प्रशांत किशोर के संपर्क में है. आपको बता दें कि चिराग पासवान और प्रशांत किशोर साल 2018 में 11 नवंबर को रामविलास पासवान के पटना आवास पर मिले भी थे और माना जा रहा है कि इस मुलाकात के बाद से दोनों लगातार संपर्क में है.


भगवान सिंह कुशवाहा का जदयू से अलग होने और एलजेपी के साथ होने के पीछे क्या कारण है :

आपको बता दें कि हाल ही में जनता दल यूनाइटेड के नेता और प्रशांत किशोर के करीबी भगवान श्री कुशवाहा ने जनता दल यूनाइटेड का दामन छोड़ एलजेपी का दामन थामा है और इसके पीछे वजह प्रशांत किशोर को बताया जा रहा है. आपको बता दें कि 2019 की शुरुआत में जब प्रशांत किशोर जनता दल यूनाइटेड के उपाध्यक्ष हुआ करते थे तभी भगवान सिंह कुशवाहा को उनके काफी समर्थकों के साथ प्रशांत किशोर ने ही जनता दल यूनाइटेड ज्वाइन करवाई थी और उनको यह वायदा किया गया था कि, उनको काराकाट लोकसभा सीट से टिकट दी जाएगी.

किंतु टिकट बंटवारे के वक्त जेडीयू महासचिव आरसीपी सिंह के सामने प्रशांत किशोर की चल नहीं पाई और भगवान सिंह कुशवाहा को टिकट नहीं मिल पाया. जिसके बाद से कुशवाहा नाराज चल रहे थे और प्रशांत किशोर के पार्टी छोड़ने के बाद कुशवाहा पार्टी में पूरी तरह से अलग-थलग हो गए थे. ऐसे में कुशवाहा का जनता दल यूनाइटेड छोर एलजेपी का दामन थामना प्रशांत किशोर और चिराग पासवान के सांठगांठ की ओर इशारा करता है. आपको बता दें कि भगवान सिंह कुशवाहा को जगदीशपुर विधानसभा सीट से उम्मीदवार बनाया गया है.

प्रशांत किशोर को क्यों जनता दल यूनाइटेड से बाहर का रास्ता दिखाया गया था :

आप सबको याद हो तो सितंबर 2018 में प्रशांत किशोर ने सक्रिय राजनीति में अपना पांव पसारते हुए जनता दल यूनाइटेड का दामन थामा था. जिसके बाद लोगों को हैरानी भी हुई थी और हैरानी होना लाजमी भी था, क्योंकि प्रशांत किशोर इससे पहले अलग-अलग पार्टियों के लिए पर्दे के पीछे से गेम चेंजर की भूमिका निभाया करते थे. प्रशांत किशोर का सक्रिय राजनीति में कदम रखना उनकी खुद की महत्वाकांक्षा बताई गई, जिसमें प्रशांत किशोर को यह उम्मीद थी कि बिहार में नीतीश कुमार के बाद जनता दल यूनाइटेड में वह नंबर दो के नेता होंगे और इस लिहाज से भविष्य में वह बिहार के सीएम बन जाएंगे. प्रशांत किशोर को भविष्य के लिए मुख्यमंत्री का चेहरा बनाने के लिए उनकी कंपनी आईपैक ने पूरी तैयारी भी कर ली थी.

किंतु कुछ समय बाद प्रशांत किशोर का यह सपना चकनाचूर हो गया और इसके पीछे कारण बने आरसीपी सिंह और लल्लन सींह. आपको बता दें कि जनता दल यूनाइटेड के वरिष्ठ नेताओं में से एक आरसीपी सिंह  हमेशा से खुद को नितीश कुमार का करीबी और खुद को नंबर दो का नेता मानते रहे है. वहीं ललन सिंह भी यही सोचते हैं कि नीतीश कुमार के बाद पार्टी में उनकी हैसियत नंबर दो की है. ऐसे में इन दो बड़े नेताओं के बीच पार्टी में प्रशांत किशोर एक कंकड़ की भांति खटकते रहे. साथ ही साथ प्रशांत किशोर के रिश्ते इन दोनों नेताओं से कभी अच्छे भी नहीं हो पाए, जिसका खामियाजा अंततः प्रशांत किशोर को निष्कासन के रूप में भुगतना पड़ा.

प्रशांत किशोर का T10 मिशन और चिराग पासवान का बिहार फर्स्ट बिहारी फर्स्ट मिशन एक सा लगता है क्यूं ?

निष्कासन के बाद प्रशांत किशोर ने अपना भविष्य कहीं और तलाशना शुरू कर दिया और शायद अभी के समीकरणों को देखकर ऐसा लगता है, जैसे प्रशांत किशोर अब चिराग पासवान के जरिए सक्रिय राजनीति में आगे बढ़ना चाहते हैं. अभी चिराग पासवान जिस तरीके से पिछले कुछ महीनों में बिहार में राजनीति कर रहे हैं, वो राजनीति का पैटर्न प्रशांत किशोर का ही है और शायद यह रणनीति प्रशांत किशोर के दिमाग से ही बुनी जा रही है. प्रशांत किशोर की राजनीति को समझने के लिए आपको सबसे पहले प्रशांत किशोर के T-10 मिशन को समझना होगा. टीम प्रशांत किशोर ने T-10 मिशन कैंपेन की योजना बनाई थी, जिसका मकसद बिहार को टॉप राज्य में लाना और भविष्य में प्रशांत किशोर को मुख्यमंत्री बनाना था. हालाकी जेडीयू से निष्कासन के बाद इस कैंपेन को टीम प्रशांत पूरा नहीं कर पाई. प्रशांत किशोर जब जनवरी के महीने में जनता दल यूनाइटेड से निकाले गए उसके ठीक बाद फरवरी में ही चिराग पासवान ने बिहार फर्स्ट बिहारी फर्स्ट कैंपेन की शुरुआत की और सबसे बड़ी बात यह है कि इस कैंपेन का ब्लूप्रिंट प्रशांत किशोर के की T-10 मिशन से बिल्कुल मिलता जुलता है. यानी बिहार को नंबर एक राज्य बनाने की बात लेकर जन जन तक पहुंचना.

प्रशांत किशोर को सोशल मीडिया एक्सपोर्ट मना जाता है, क्योंकि प्रशांत किशोर पार्टियों के प्रचार के लिए सोशल मीडिया का पूरी तरह से इस्तेमाल करते हैं और वह हर तिकड़म लगाते हैं जिससे पार्टी की आवाज जन जन तक जा सके. वही पिछले कुछ महीने से यह देखा जा रहा है कि चिराग पासवान भी सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव हो गए हैं. एक समय था जब बिहार के पिछड़ेपन की बात सिर्फ प्रशांत किशोर किया करते थे और आज उसी काम को चिराग पासवान सोशल मीडिया या फिर प्रिंट मीडिया के जरिए आगे बढ़ा रहे हैं और नीतीश कुमार पर निशाना साध रहे हैं.

प्रशांत किशोर अपने पेज 'बात बिहार की' पर 60 से 65 लाख रुपए खर्च कर चुके हैं नीतीश के विरोध के लिए :

प्रशांत किशोर के निष्कासन का कारण दिल्ली विधानसभा चुनाव भी बताया जाता है. आपको बता दें कि प्रशांत किशोर कि कंपनी दिल्ली चुनाव में आम आदमी पार्टी की मदद कर रही थी, वहीं प्रशांत किशोर की खुद की पार्टी जदयू जिसके वह उपाध्यक्ष थे वो भी दिल्ली में चुनाव लड़ रही थी. यही बात जनता दल यूनाइटेड के कई नेताओं को खटक रही थी कि प्रशांत किशोर खुद की पार्टी का प्रचार करने के बजाय दिल्ली चुनाव में किसी और पार्टी का प्रचार क्यों कर रहे हैं. साथ ही साथ सीएए और एनआरसी जैसे मुद्दों पर प्रशांत किशोर का नीतीश कुमार से मनमुटाव प्रशांत किशोर के निष्कासन का कारण बना.अंततः 

उन्हें 29 जनवरी 2020 को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. इसके बाद प्रशांत किशोर ने वैकल्पिक नेतृत्‍व देने की बात कह कर बाकायदा ‘बात बिहार की’ नाम से कैंपेन का ऐलान किया.अगर हम फेसबुक पेज 'बात बिहार की' के बारे में बात करें तो यह पेज लगातार नितीश कुमार का विरोध प्रचार कर रही है. वहीं अगर हम एक मीडिया रिपोर्ट की माने तो इस पेज के कंटेंट को लोगों तक पहुंचाने के लिए बीते 8 महीने में प्रशांत किशोर ने 60 से 65 लाख रुपए खर्च किए हैं. वहीं अगर हम जमीनी स्तर की बात करें तो इस कैंपेन में कुछ खास हलचल नहीं दिखाई देती है. बहरहाल जो भी हो आने वाले दिनों में बीजेपी नीतीश कुमार का वैकल्पिक चेहरा तलाश कर रही है और शायद यही कारण है कि चिराग पासवान बीजेपी के विरुद्ध चुनाव लड़ के भी उनके साथ खड़े हैं और इसमें चिराग पासवान का बखूबी साथ दे रहे हैं प्रशांत किशोर.

 

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